छठ पूजा का इतिहास और करने की विधि !

महापर्व मतलब छठ पूजा जो आज बिहार की सीमा से निकल कर भारत और पुरे दुनिया में मनाये जाने लगा है | इस पर्व में पहले डूबते सूर्य और अगले दिन उगते सूर्य कि  पूजा की जाती है | सूर्य मतलब जीवन का प्रतिक, सूर्य के बिना पृथ्वी पर जीवन की कल्पना नहीं किया जा सकता है, छठ पूजा करके हमलोग उन देवताओ को हमारे जीवन को बनाये रखने के लिए धन्यवाद् और शुभकामनाएँ देते है| छठ पूजा मुख्य रूप से सूर्य का उपासना है जिसमे सूर्य, उषा, प्रकृति, जल, वायु और सूर्य की छोटी बहन छठी मइया को पृथ्वी पर जीवन सुचारु रूप से चलाये रखने के लिए अनुरोध किया गया एक समर्पण हैं | छठ में कोई मूर्तिपूजा शामिल नहीं है।[

छठ पर्व ऋषियों द्वारा ऋग्वेद में लिखी गई कथा है जो वैदिक कल से मनाया जा रहा है और यह बिहार के लोगो का संस्कृति बन गया है| आज छठ पूजा बिहार की पहचान बन गई है और इसे पुरे धूम धाम से मनाया जाता हैं | यह पर्व मुख्य रूप से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखण्ड और नेपाल में मनाया जाता था लेकिन आज यह पर्व अपनी सीमा को पार करते हुए पुरे भारत और विदेशो में भी मनाया जाने लगा है इसका मुख्य कारण यह है की जंहा भी बिहार के लोग गए अपनी संस्कृति से जुड़े रहे और छठ पर्व करते रहे| आज बिहार के लोग अपनी रोजी रोजगार के लिए बिहार से बहार निकलकर पुरे दुनिया में गए है और साथ में आपने कल्चर और संस्कृति भी लेकर गए है |

पौराणिक और लोक कथाएँ के अनुसार छठ पूजा की शुरुआत

पौराणिक वैदिक कथाओ के अनुसार छठ पूजा का इतिहास अलग-अलग है लेकिन हर काल खंड में छठ पूजा या सूर्य देवता का पूजा हुआ है इसका प्रमाण मिलता है |

देवासुर संग्राम  के अनुसार

जब देवासुर संग्राम हुआ था तब देवता असुरो से बुरी तरह से हार गये थे तब देव माता अदिति ने असुरो को हारने के लिए तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर (आज यह स्थान बिहार के औरंगाबाद जिला में स्थित है और देव सूर्य मंदिर का बहुत ही महत्वा है) में छठी मैया को प्रसन करने के लिए उनका आराधना की थी। तब उनके आराधना से  प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी, बुद्धिमान और बलशाली  पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति माता के गर्भ से पुत्र के रूप में  त्रिदेव रूप आदित्य भगवान पैदा लिए, जिन्होंने असुरों के साथ युद्ध करके  देवताओं को विजय दिलायी थी। कहा जाता हैं कि उसी समय से देव सेना षष्ठी देवी (छठी मइया ) के नाम पर इस धाम का नाम देव हो गया जो आज भी बिहार में स्थित है  और छठ का चलन भी शुरू हो गया था जो आज भी चलरहा है।

छठ पूजा रामायण के अनुसार  

कहा जाता है की जब राम जी, सीता जी और लक्ष्मण जी १४ साल के बनवास से रावण का वद्ध  करके अयोध्या वापस आये तो उनके गुरुओ ने उनहे सलाह दिया रामराज्य के स्थापना के लिए और रावण वद्ध से जो ब्राह्मण को मरने का जो पाप लगा था उसके लिए छुटकारा के लिए आप एक यज्ञ करे जिसमे सूर्य देवता का उपासना करना था | अपने गुरु जानो का बात मानते हुए भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया जो कार्तिक शुक्ल षष्ठी को और सूर्यदेव की आराधना की थी । सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त करके यज्ञ की समाप्ति की थी |

छठ पूजा महाभारत के अनुसार

ये सभी को विदित है कि कर्ण का जन्म सूर्य देव के द्वारा दिए गए वरदान के कारण कुंती के गर्भ से हुआ था और कर्ण सूर्य पुत्र भी कहलाते थे| सूर्य देव कृपा से ही उन्हें कवच और कुण्डल की प्राप्ति हुई थी और वो महान, तेजवान, वीर योद्धा बने थे| कहा जाता है कि इस पर्व की शुरुआत सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण के द्वारा सूर्य की पूजा करके की थी। कर्ण प्रतिदिन घंटों तक कमर भर पानी में खड़े रहकर सूर्य पूजा करते थे एवं उनको अर्घ्य देते थे। इसलिए आज भी छठ में सूर्य को अर्घ्य देने परंपरा चली आ रही है कि सूर्य का अर्घ्य पानी में ही दिया जाता है |

ये भी कथा है की जब पांडव पे ये विपदा आई कि पांडव सकुनी के हाथो सारा राज्य जुए में हार गए तो श्री कृष्णा ने पांडव की पत्नी द्रोपदी से कहा की आप सूर्य देवता की आराधना करो| द्रोपती जी ने सूर्य देव की आराधना की और उनका खोया हुआ वैभव वापस मिल गया |

छठ पूजा पुराण के अनुसार

एक राजा थे जिनका नाम था प्रियवंद और उनकी पत्नी थी मालिनी| दोनों को कोई संतान नहीं था इसलिए ये लोग बहुत दुखी रहते थे | महर्षि कश्यप ने प्रियवंद और मालिनी के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ कराइ और  यज्ञाहुति के लिए बनायी गयी खीर मालिनी को खाने के लिए दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ परन्तु वह मृत पैदा हुआ। प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गये और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त ब्रह्माजी की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूँ। हे! राजन् आप मेरी पूजा करें तथा लोगों को भी पूजा के प्रति प्रेरित करें। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।

वैज्ञानिक दृश्टिकोण से छठ पूजा का फायदा

छठ पूजा का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बहुत महत्त्व है| खगोल विज्ञानं के अनुसार देखा जाए तो षष्ठी तिथि (छठ) को पृथ्वी पर एक विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है, इस परिवर्तन के समय सूर्य की पराबैगनी किरणें (Ultra Violet Rays) पृथ्वी पर कुछ ऐसा होता है की पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में इक्ठा हो जाती हैं इसके कारण सम्भावित कुप्रभावों से मानव जाती की इससे यथासम्भव रक्षा करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है। इसलिए पूजा का पालन से सूर्य (तारा) प्रकाश (पराबैगनी किरण) के हानिकारक प्रभाव से मानव और अन्य जीवों की रक्षा सम्भव है। पृथ्वी के जीवों को इससे बहुत लाभ मिलता है।

सूर्य के प्रकाश के साथ सूर्य के पराबैगनी किरण भी चंद्रमा और पृथ्वी के वायुमंडल में आती हैं। सूर्य का प्रकाश जब पृथ्वी पर पहुँचता है, तो पहले वायुमंडल में मिलता है। वायुमंडल में प्रवेश करने पर बहुत सारे कण से टकराना परता है और वो आयन मंडल में मिलता है। वायुमंडल पराबैगनी किरणों का उपयोग कर वायुमंडल में स्थित अपने ऑक्सीजन तत्त्व को संश्लेषित कर उसे उसके एलोट्रोप ओजोन में बदल देता है। इस प्रक्रिया के कारण सूर्य की पराबैगनी किरणों का अधिकांश भाग मानव और अन्य जीवो को हानि पंहुचा सकते है पृथ्वी के वायुमंडल में ही अवशोषित हो जाता है। यह पूरी तरह ख़त्म तो नहीं पर पृथ्वी की सतह पर केवल उसका बहुत नगण्य भाग ही पहुँच पाता है जो बहुत हानिकारक जीवो के लिए नहीं होता है। सामान्य अवस्था में पृथ्वी की सतह पर पहुँचने वाली पराबैगनी किरण की मात्रा ऐसा होता है की वो मनुष्यों या जीवों के सहन करने की सीमा में होती है मतलब मानव और जीव को कोई हानि नहीं पहुँचता है। बल्कि उस किरण के प्रभाव से हानिकारक कीटाणु मर जाते हैं, जिससे मनुष्य या दूसरे जीवो को बहुत फायदा होता है।

खगोलीय स्थिति के कारन (चंद्रमा और पृथ्वी के भ्रमण तलों की सम रेखा के दोनों छोरों पर) सूर्य की पराबैगनी किरणें कुछ चंद्र सतह से परावर्तित तथा कुछ गोलीय अपवर्तित होती हुई, पृथ्वी पर पुन: सामान्य से अधिक मात्रा में पहुँच जाती हैं। वायुमंडल के स्तरों से आवर्तित होती हुई, सूर्यास्त तथा सूर्योदय को यह और भी ज्यादा हो जाती है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह घटना कार्तिक तथा चैत्र मास की अमावस्या के छ: दिन के बाद प्रति वर्ष आती है। ज्योतिषीय गणना पर आधारित होने के कारण इसका नाम और कुछ नहीं, बल्कि छठ पूजा ही रखा गया है।

इस वैज्ञानिक कारण से हम सूर्य और समस्त वायुमंडल को आभार प्रकट करने के लिए भी ये पूजा करते है |

छठ पूजा की संस्कृति महत्वा

यह पर्व कोई भी कर सकता है महिलाये, पुरुष, जवान और बूढ़े भी| यह पर्व दिवाली के ६ दिन के बाद मनाया जाता है| यह पर्व साल में दो बार मनाया जाता है एक चैत्र मास में और दूसरा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के सष्ठी तिथि को मनाई जाती है लेकिन इसका शुरुआत चतुर्थी से ही हो जाता है | छठ पूजा का सबसे महत्त्वपूर्ण बात इसकी सादगी पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व में बाँस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बर्त्तनों, गन्ने का रस, गुड़, चावल और गेहूँ से निर्मित प्रसाद ये सारा सामान जो पूजा के प्रयोग में आता है वो सभी वस्तुए पर्यावरण के हिसाब से इकोफ्रैंडली होता जो पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुँचता है और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है। अगर आप देखे तो छठ पूजा को करने और सामान जो प्रयोग होता है वो सारा सामान किसान के पास और गांव में बहुत ही सामन्य तरीके से उपलब्ध हो जाता है जिससे सामाजिक सरोकार के साथ वहा के लोगो का कारोबार भी होता है

शास्त्रों से अलग यह जन सामान्य द्वारा अपने रीति-रिवाजों के रंगों में गढ़ी गयी उपासना पद्धति है। इसके केंद्र में वेद, पुराण जैसे धर्मग्रन्थ न होकर किसान और ग्रामीण जीवन है। इस व्रत के लिए न विशेष धन की आवश्यकता है न पुरोहित या गुरु के अभ्यर्थना की। जरूरत पड़ती है तो पास-पड़ोस के सहयोग की जो अपनी सेवा के लिए सहर्ष और कृतज्ञतापूर्वक प्रस्तुत रहता है। इस उत्सव के लिए जनता स्वयं अपने सामूहिक अभियान संगठित करती है। नगरों की सफाई, व्रतियों के गुजरने वाले रास्तों का प्रबन्धन, तालाब या नदी किनारे अर्घ्य दान की उपयुक्त व्यवस्था के लिए समाज सरकार के सहायता की राह नहीं देखता। इस उत्सव में खरना के उत्सव से लेकर अर्ध्यदान तक समाज की अनिवार्य उपस्थिति बनी रहती है। यह सामान्य और गरीब जनता के अपने दैनिक जीवन की मुश्किलों को भुलाकर सेवा-भाव और भक्ति-भाव से किये गये सामूहिक कर्म का विराट और भव्य प्रदर्शन है।

छठ पूजा को बिहारी और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग अपने स्तित्व से जोर कर रखे है जिसके कारण बहुत से राज्यों में इसका विरोध भी हुआ लेकिन इसका जितना विरोध हुआ यह उतना ही मजबूत हो कर उभरा|

छठपूजाकरनेकीविधि
छठ पूजा कार्तिक और चैत्र मास में मनाया जाता है यह चार दिवसीय उत्सव है। जिसकी शुरुआत कार्तिक मास और चैत्र मास के शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक मास और चैत्र मास शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी (जो व्रत करती है) खरना के दिन सिर्फ एक समय शाम को प्रसाद ग्रहण करती है लगभग २४ घंटे उपवास के बाद और उसके बाद लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते।

यह चतुर्थी से शुरू होता है जिसे दिन नहाय खाये होता है, पंचमी को खरना या लोहंडा होता है अगले दिन षष्ठी को पहला अर्ग या संध्या अर्ग होता है और सप्तमी को दूसरा अर्ग या पारण के साथ समाप्त होता है |

छठ पुजा का नहाय खाय

छठ पुजा का पहला दिन चैत्र या कार्तिक महीने के चतुर्थी कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से शुरुआत होता है जिसे ‘नहाय-खाय’ के नाम से जाना जाता है। सबसे पहले इस पूजा में घर की सफाई कर उसे पवित्र किया जाता है। उसके बाद व्रती अपने नजदीक में स्थित कोई नदी, तालाब, कुआ अगर ये सब उपलब्ध  घर में स्नान करते है। व्रती इस दिन नाखनू वगैरह को अच्छी तरह काटकर, स्वच्छ जल से अच्छी तरह बालों को धोते हुए स्नान करते हैं। लौटते समय वो अपने साथ गंगाजल लेकर आते है जिसका उपयोग वे खाना बनाने में करते है । वे अपने घर के आस पास को साफ सुथरा रखते है । खाना में व्रती कद्दू की सब्जी , चना का दाल, अरवा चावल का उपयोग करते है .यह खाना कांसे या मिटटी के बर्तन में पकाया जाता है। खाना पकाने के लिए आम की लकड़ी और मिटटी के चूल्हे का इस्तेमाल किया जाता है। खाना में शुद्ध रूप से पकता है जिसमे लहसुन और प्याज का उपयोग एकदम वर्जित है| जब खाना बन जाता है तो सर्वप्रथम व्रती खाना खाते है उसके बाद ही परिवार के अन्य सदस्य इस प्रसाद के रूप में खाना खाते है ।

छठ पुजा का खरना और लोहंडा

छठ पूजा का दूसरा दिन जिसे खरना या लोहंडा के नाम से जाना जाता है,चैत्र या कार्तिक महीने के पंचमी को मनाया जाता है। इस दिन व्रती पुरे दिन उपवास रखते है . इस दिन व्रती अन्न तो दूर की बात है सूर्यास्त से पहले पानी की एक बूंद तक ग्रहण नहीं करते है। शाम को चावल और गन्ने के रस का बना गुर का प्रयोग कर खीर बनाया जाता है। खाना बनाने में नमक और चीनी का प्रयोग नहीं किया जाता है। इन्हीं दो चीजों को पुन: सूर्यदेव को नैवैद्य देकर उसी घर में ‘एकान्त’ करते हैं अर्थात् एकान्त रहकर उसे केला के पत्ते पर ग्रहण करते हैं। परिवार के सभी सदस्य उस समय घर से बाहर चले जाते हैं ताकी कोई शोर न हो सके। एकान्त से खाते समय व्रती हेतु किसी तरह की आवाज सुनना पर्व के नियमों के विरुद्ध है।

पुन: व्रती खाकर अपने सभी परिवार जनों एवं मित्रों-रिश्तेदारों को वही ‘खीर-रोटी’ का प्रसाद खिलाते हैं। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को ‘खरना’ कहते हैं। चावल का पिठ्ठा व घी लगी रोटी भी प्रसाद के रूप में वितरीत की जाती है। इसके बाद अगले 36 घंटों के लिए व्रती निर्जला व्रत रखते है। मध्य रात्रि को व्रती छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद ठेकुआ बनाती है ।

छठ पुजा का संध्या अर्घ्य

छठ पर्व करते छठव्रती छठ पर्व का तीसरा दिन जिसे संध्या अर्घ्य के नाम से जाना जाता है,चैत्र या कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाता है। पुरे दिन सभी लोग मिलकर पूजा की तैयारिया करते है। छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद जैसेठेकुआ, चावल के लड्डू जिसे कचवनिया भी कहा जाता है, बनाया जाता है । छठ पूजा के लिए एक बांस की बनी हुयी टोकरी जिसे दउरा कहते है में पूजा के प्रसाद,फल डालकर देवकारी में रख दिया जाता है। वहां पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल,पांच प्रकार के फल,और पूजा का अन्य सामान लेकर दउरा में रख कर घर का पुरुष अपने हाथो से उठाकर छठ घाट पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो इसलिए इसे सर के ऊपर की तरफ रखते है। छठ घाट की तरफ जाते हुए रास्ते में प्रायः महिलाये छठ का गीत गाते हुए जाती है

नदी या तालाब के किनारे जाकर महिलाये घर के किसी सदस्य द्वारा बनाये गए चबूतरे पर बैठती है। नदी से मिटटी निकाल कर छठ माता का जो चौरा बना रहता है उस पर पूजा का सारा सामान रखकर नारियल चढाते है और दीप जलाते है। सूर्यास्त से कुछ समय पहले सूर्य देव की पूजा का सारा सामान लेकर घुटने भर पानी में जाकर खड़े हो जाते है और डूबते हुए सूर्य देव को अर्घ्य देकर पांच बार परिक्रमा करते है।

सामग्रियों में, व्रतियों द्वारा स्वनिर्मित गेहूं के आटे से निर्मित ‘ठेकुआ’ सम्मिलित होते हैं। यह ठेकुआ इसलिए कहलाता है क्योंकि इसे काठ के एक विशेष प्रकार के डिजाइनदार फर्म पर आटे की लुगधी को ठोकर बनाया जाता है। उपरोक्त पकवान के अतिरिक्त कार्तिक मास में खेतों में उपजे सभी नए कन्द-मूल, फलसब्जी, मसाले व अन्नादि यथा गन्ना, ओल, हल्दी, नारियल, नींबू(बड़ा), पके केले आदि चढ़ाए जाते हैं। ये सभी वस्तुएं साबूत (बिना कटे टूटे) ही अर्पित होते हैं। इसके अतिरिक्त दीप जलाने हेतु,नए दीपक,नई बत्तियाँ व घी ले जाकर घाट पर दीपक जलाते हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण अन्न जो है वह है कुसही केराव के दानें (हल्का हरा काला, मटर से थोड़ा छोटा दाना) हैं जो टोकरे में लाए तो जाते हैं पर सांध्य अर्घ्य में सूरजदेव को अर्पित नहीं किए जाते। इन्हें टोकरे में कल सुबह उगते सूर्य को अर्पण करने हेतु सुरक्षित रख दिया जाता है। बहुत सारे लोग घाट पर रात भर ठहरते है वही कुछ लोग छठ का गीत गाते हुए सारा सामान लेकर घर आ जाते है और उसे देवकरी में रख देते है ।

छठ पुजा का उषा अर्घ्य

सूर्यदेव को अर्घ्य देते छठव्रती चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। सूर्योदय से पहले ही व्रती लोग घाट पर उगते सूर्यदेव की पूजा हेतु पहुंच जाते हैं और शाम की ही तरह उनके पुरजन-परिजन उपस्थित रहते हैं। संध्या अर्घ्य में अर्पित पकवानों को नए पकवानों से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है परन्तु कन्द, मूल, फलादि वही रहते हैं। सभी नियम-विधान सांध्य अर्घ्य की तरह ही होते हैं। सिर्फ व्रती लोग इस समय पूरब की ओर मुंहकर पानी में खड़े होते हैं व सूर्योपासना करते हैं। पूजा-अर्चना समाप्तोपरान्त घाट का पूजन होता है। वहाँ उपस्थित लोगों में प्रसाद वितरण करके व्रती घर आ जाते हैं और घर पर भी अपने परिवार आदि को प्रसाद वितरण करते हैं। व्रति घर वापस आकर गाँव के पीपल के पेड़ जिसको ब्रह्म बाबा कहते हैं वहाँ जाकर पूजा करते हैं। पूजा के पश्चात् व्रति कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं जिसे पारण या परना कहते हैं। व्रती लोग खरना दिन से आज तक निर्जला उपवासोपरान्त आज सुबह ही नमकयुक्त भोजन करते हैं।

ऐसे छठ पूजा का समापन होता है |

जय छठी मईया की!

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